सूरह अल-काफिरून [109]
﴾ 1 ﴿ (हे नबी!) कह दोः हे काफ़िरो!
﴾ 2 ﴿ मैं उन (मूर्तियों) को नहीं पूजता, जिन्हें तुम पूजते हो।
﴾ 3 ﴿ और न तुम उसे पूजते हो, जिसे मैं पूजता हूँ।
﴾ 4 ﴿ और न मैं उसे पूजूँगा, जिसे तुम पूजते हो।
﴾ 5 ﴿ और न तुम उसे पूजोगे, जिसे मैं पूजता हूँ।
﴾ 6 ﴿ तुम्हारे लिए तम्हारा धर्म तथा मेरे लिए मेरा धर्म है।[1]
1. (1-6) पूरी सूरह का भावार्थ यह है कि इस्लाम में वही ईमान (विश्वास) मान्य है जो पूर्ण तौह़ीद (एकेश्वर्वाद) के साथ हो, अर्थात अल्लाह के अस्तित्व तथा गुणों और उस के अधिकारों में किसी को साझी न बनाया जाये। क़ुर्आन की शिक्षानुसार जो अल्लाह को नहीं मानता, और जो मानता है परन्तु उस के साथ देवी देवताओं को भी मानात है तो दोनों में कोई अन्तर नहीं। उस के विशेष गुणों को किसी अन्य में मानना उस को न मानने के ही बराबर है और दोनों ही काफ़िर हैं। (देखियेः उम्मुल किताब, मौलाना आज़ाद)
1. (1-6) पूरी सूरह का भावार्थ यह है कि इस्लाम में वही ईमान (विश्वास) मान्य है जो पूर्ण तौह़ीद (एकेश्वर्वाद) के साथ हो, अर्थात अल्लाह के अस्तित्व तथा गुणों और उस के अधिकारों में किसी को साझी न बनाया जाये। क़ुर्आन की शिक्षानुसार जो अल्लाह को नहीं मानता, और जो मानता है परन्तु उस के साथ देवी देवताओं को भी मानात है तो दोनों में कोई अन्तर नहीं। उस के विशेष गुणों को किसी अन्य में मानना उस को न मानने के ही बराबर है और दोनों ही काफ़िर हैं। (देखियेः उम्मुल किताब, मौलाना आज़ाद)