सूरह अत-तग़ाबुन [64]
﴾ 1 ﴿ अल्लाह की पवित्रता वर्णन करती है प्रत्येक चीज़, जो आकाशों में है तथा जो धरती में है। उसी का राज्य है और उसी के लिए प्रशंसा है तथा वह जो चाहे, कर सकता है।
﴾ 2 ﴿ वही है, जिसने उत्पन्न किया है तुम्हें, तो तुममें से कुछ काफ़िर हैं और तुममें से कोई ईमान वाला है तथा अल्लाह जो कुछ तुम करते हो, उसे देख रहा है।[1]
1. देखने का अर्थ कर्मों के अनुसार बदला देना है।
1. देखने का अर्थ कर्मों के अनुसार बदला देना है।
﴾ 3 ﴿ उसने उत्पन्न किया आकाशों तथा धरती को सत्य के साथ तथा रूप बनाया तुम्हारा तो सुन्दर बनाया तुम्हारा रूप और उसी की ओर फिरकर जाना है।[1]
1. अर्थात प्रलय के दिन कर्मों का प्रतिफल पाने के लिये।
1. अर्थात प्रलय के दिन कर्मों का प्रतिफल पाने के लिये।
﴾ 4 ﴿ वह जानता है, जो कुछ आकाशों तथा धरती में है और जानता है, जो तुम मन में रखते हो और जो बोलते हो तथा अल्लाह भली-भाँति अवगत है दिलों के भेदों से।
﴾ 5 ﴿ क्या नहीं आई तुम्हारे पास उनकी सूचना, जिन्होंने कुफ़्र किया इससे पूर्व? तो उन्होंने चख लिया अपने कर्म का दुष्परिणाम और उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।[1]
1. अर्थात परलोक में नरक की यातना।
1. अर्थात परलोक में नरक की यातना।
﴾ 6 ﴿ ये इसलिए कि आते रहे उनके पास उनके रसूल खुली निशानियाँ लेकर। तो उन्होंने कहाः क्या कोई मनुष्य हमें मार्गदर्शन[1] देगा? अतः उन्होंने कुफ़्र किया तथा मुँह फेर लिया और अल्लाह (भी उनसे) निश्चिन्त हो गया तथा अल्लाह निस्पृह, प्रशंसित है।
1. अर्थात रसूल मनुष्य कैसे हो सकता है। यह कितनी विचित्र बात है कि पत्थर की मूर्तियों को तो पूज्य बना लिया जाये इसी प्रकार मनुष्य को अल्लाह का अवतार और पुत्र बना लिया जाये, पर यदि रसूल सत्य ले कर आये तो उसे न माना जाये। इस का अर्थ यह हुआ कि मनुष्य कुपथ करे तो यह मान्य है, और यदि वह सीधी राह दिखाये तो मान्य नहीं।
1. अर्थात रसूल मनुष्य कैसे हो सकता है। यह कितनी विचित्र बात है कि पत्थर की मूर्तियों को तो पूज्य बना लिया जाये इसी प्रकार मनुष्य को अल्लाह का अवतार और पुत्र बना लिया जाये, पर यदि रसूल सत्य ले कर आये तो उसे न माना जाये। इस का अर्थ यह हुआ कि मनुष्य कुपथ करे तो यह मान्य है, और यदि वह सीधी राह दिखाये तो मान्य नहीं।
﴾ 7 ﴿ समझ रखा है काफ़िरों ने कि वे कदापि फिर जीवित नहीं किये जायेंगे। आप कह दें कि क्यों नहीं? मेरे पालनहार की शपथ! तुम अवश्य जीवित किये जाओगे। फिर तुम्हें बताया जायेगा कि तुमने (संसार में) क्या किया है तथा ये अल्लाह पर अति सरल है।
﴾ 8 ﴿ अतः तुम ईमान लाओ अल्लाह तथा उसके रसूल[1] पर तथा उस नूर (ज्योति)[2] पर, जिसे हमने उतारा है तथा अल्लाह उससे, जो तुम करते हो भली-भाँति सूचित है।
1. इस से अभिप्राय अन्तिम रसूल मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हैं। 2. ज्योति से अभिप्राय अन्तिम ईश-वाणी क़ुर्आन है।
1. इस से अभिप्राय अन्तिम रसूल मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) हैं। 2. ज्योति से अभिप्राय अन्तिम ईश-वाणी क़ुर्आन है।
﴾ 9 ﴿ जिस दिन वह तुम्हें एकत्र करेगा, एकत्र किये जाने वाले दिन। तो वह क्षति (हानि) के खुल जाने[1] का दिन होगा और जो ईमान लाया अल्लाह पर तथा सदाचार करता है, तो वह क्षमा कर देगा उसके दोषों को और प्रवेश देगा उसे ऐसे स्वर्गों में, बहती होंगी जिनमें नहरें, वे सदावासी होंगे उनमें। यही बड़ी सफलता है।
1. अर्थात काफ़िरों के लिये, जिन्होंने अल्लाह की आज्ञा का पालन नहीं किया।
1. अर्थात काफ़िरों के लिये, जिन्होंने अल्लाह की आज्ञा का पालन नहीं किया।
﴾ 10 ﴿ और जिन लोगों ने कुफ़्र किया और झुठलाया हमारी आयतों (निशानियों) को, तो वही नारकी हैं, जो सदावासी होंगे उस (नरक) में तथा वह बुरा ठिकाना है।
﴾ 11 ﴿ जो आपदा आती है, वह अल्लाह ही की अनुमति से आती है तथा जो अल्लाह पर ईमान[1] लाये, तो वह मार्गदर्शन देता[2] है उसके दिल को तथा अल्लाह प्रत्येक चीज़ को जानता है।
1. अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आपदा को यह समझ कर सहन करता है कि अल्लाह ने यही उस के भाग्य में लिखा है। 2. ह़दीस में है कि ईमान वाले की दशा विभिन्न होती है। और उस की दशा उत्तम ही होती है। जब उसे सुख मिले तो कृतज्ञ होता है। और दुख हो तो सहन करता है। और यह उस के लिये उत्तम है। (मुस्लिमः 2999)
1. अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आपदा को यह समझ कर सहन करता है कि अल्लाह ने यही उस के भाग्य में लिखा है। 2. ह़दीस में है कि ईमान वाले की दशा विभिन्न होती है। और उस की दशा उत्तम ही होती है। जब उसे सुख मिले तो कृतज्ञ होता है। और दुख हो तो सहन करता है। और यह उस के लिये उत्तम है। (मुस्लिमः 2999)
﴾ 12 ﴿ तथा आज्ञा का पालन करो अल्लाह की तथा आज्ञा का पालन करो उसके रसूल की। फिर यदि तुम विमुख हुए, तो हमारे रसूल का दायित्व केवल खुले रूप से (उपदेश) पहुँचा देना है।
﴾ 13 ﴿ अल्लाह वह है, जिसके सिवा कोई वंदनीय ( सच्चा पूज्य) नहीं है। अतः, अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिये ईमान वालों को।
﴾ 14 ﴿ हे लोगो जो ईमान लाये हो! वास्तव में, तुम्हारी कुछ पत्नियाँ तथा संतान तुम्हारी शत्रु[1] हैं। अतः, उनसे सावधान रहो और यदि तुम क्षमा से काम लो तथा सुधार करो और क्षमा कर दो, तो वास्तव में अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
1. अर्थात जो तुम्हें सदाचार एवं अल्लाह के आज्ञा पालन से रोकते हों, फिर भी उन का सुधार करने और क्षमा करने का निर्देश दिया गया है।
1. अर्थात जो तुम्हें सदाचार एवं अल्लाह के आज्ञा पालन से रोकते हों, फिर भी उन का सुधार करने और क्षमा करने का निर्देश दिया गया है।
﴾ 15 ﴿ तुम्हारे धन तथा तुम्हारी संतान तो तुम्हारे लिए एक परीक्षा हैं तथा अल्लाह के पास बड़ा प्रतिफल[1] (बदला) है।
1. भावार्थ यह है कि धन और संतान के मोह में अल्लाह की अवैज्ञा न करो।
1. भावार्थ यह है कि धन और संतान के मोह में अल्लाह की अवैज्ञा न करो।
﴾ 16 ﴿ तो अल्लाह से डरते रहो, जितना तुमसे हो सके तथा सुनो, आज्ञा पालन करो और दान करो। ये उत्तम है तुम्हारे लिए और जो बचा लिया गया अपने मन की कंजूसी से, तो वही सफल होने वाले हैं।
﴾ 17 ﴿ यदि तुम अल्लाह को उत्तम ऋण[1] दोगो, तो वह तुम्हें कई गुना बढ़ाकर देगा और क्षमा कर देगा तुम्हें और अल्लाह बड़ा गुणग्राही, सहनशील है।
1. ऋण से अभिप्राय अल्लाह की राह में दान करना है।
1. ऋण से अभिप्राय अल्लाह की राह में दान करना है।
﴾ 18 ﴿ वह परोक्ष और ह़ाज़िर का ज्ञान रखने वाला है। वह अति प्रभावी तथा गुणी है।